Special Report: प्लाज्मा थेरेपी पर भारत को बहुत संभलकर ही बढ़ना होगा आगे

Special Report: प्लाज्मा थेरेपी पर भारत को बहुत संभलकर ही बढ़ना होगा आगे

नरजिस हुसैन

इस वक्त पूरी दुनिया में कोरोना वायरस से लड़ने के लिए वैक्सीन पर सभी बड़े देशों में काम चल रहा है। ये शोध कुछ देश अपने तौर पर कर रहे हैं जबकि कुछ विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ मिलकर। जापान की सबसे बड़ी फार्मा कंपनी टाकेडा भी प्लाज्मा का ट्रायल कर रही है। भारत में केरल ने इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) से स्वीकृति मिलने के बाद कोंवालेसेंट प्लाज्मा थेरेपी का क्लिनिकल ट्रायल शुरू कर दिया है। यह खास किस्म की थैरेपी है जिसमें कोरोना से उबर चुके मरीजों से ब्लड लिया जाता है और उसमें मौजूद एंटीबॉडीज को नए कोरोना के मरीजों में चढ़ाया जाता है। इसे पैस्सिव वैक्सीनेशन बी कहा जाता है।

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हालांकि, आज से पहले दुनिया के कई अन्य देशों में कोरोना के मरीजों को ठीक करने के लिए करीब 120 साल पुरानी प्लाज्मा थेरेपी को इस्तेमाल किया जा रहा है। 120 साल पहले जर्मन वैज्ञानिक एमिल वान बेहरिंग ने टेटनस और डिप्थीरिया का इलाज प्लाज्मा थेरेपी से किया था। प्लाज़्मा के सक्रिय पदार्थ का नाम ऐंटीबाडी रखा गया था। तब से आज तक प्लाज्मा थेरेपी का इस्तेमाल रेबीज, एच1एन1 और 2018 में इबोला के अलावा सार्स और मर्स के वक्त भी किया गया था। लेकिन, अब इसका इस्तेमाल कोरोना वायरस (कोविड-19) के लिए भी किया जा रहा है। प्लाज्मा थेरेपी में जो मरीज अपनी प्रतिरोधी क्षमता से खुद ठीक हो गए हैं, उनके रक्त प्लाज्मा को गंभीर रूप से संक्रमित मरीजों को देने से उनके स्वास्थ्य में सुधार होता है।

जापान में सबसे बड़ी फार्मा कंपनी टाकेडा भी इसी थैरेपी का ट्रायल कर रही है। टाकेडा का दावा है यह दवा कोरोना के मरीजों के लिए काफी कारगर साबित होगी। तर्क है कि रिकवर मरीजों से निकली एंटीबॉडी नए कोरोना मरीजों में पहुंचेगी और उनके इम्यून सिस्टम में तेजी से सुधार करेगी। इस थैरेपी का ट्रायल केरल के श्री चित्र तिरुनल इंस्टीट्यूट फॉर मेडिकल साइंस एंड टेक्नोलॉजी में होगा।

यहां ये जानना भी जरूरी है कि एंटीबॉडीज क्या है दरअसल, एंटीबॉडीज प्रोटीन से बनीं खास तरह की इम्यून कोशिशकाएं होती हैं जिसे बी-लिम्फोसाइट कहते हैं। जब भी शरीर में कोई बाहरी चीज (फॉरेन बॉडीज) पहुंचती है तो ये अलर्ट हो जाती हैं। बैक्टीरिया या वायरस के रिलीज किए गए विषैले पदार्थों को बेअसर करने का काम यही एंटीबॉडीज करती हैं। इस तरह ये रोगाणुओं के असर को बेअसर करती हैं। जैसे कोरोना से उबर चुके मरीजों में खास तरह की एंटीबॉडीज बन चुकी हैं जब इसे ब्लड से निकालकर दूसरे संक्रमित मरीज में इजेक्ट किया जाएगा तो वह भी कोरोनावायरस को हरा सकेगा।

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जानकारों का कहना है कि कोरोना मरीज को एंटीबॉडी सीरम देने के बाद यह उनके शरीर में 3 से 4 दिन तक रहेगी। इस बीच मरीज की हालत में सुधार होगा। चीन और अमेरिका की रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक, प्लाज्मा का असर शरीर में 3 से 4 दिन में दिख जाता है। कोरोना से ठीक हुए व्यक्ति  की हेपेटाइटिस, एचआईवी और मलेरिया जैसी जांचों के बाद ही रक्तदान की अनुमति दी जाएगी। इस रक्त से जिस मरीज का ब्लड ग्रुप मैच करेगा उसका ही इलाज किया जाएगा। इस तरह किसी तरह का संक्रमण फैलने या मरीज को दिक्कत होने का खतरा न के बराबर होगा। लेकिन, इस वजह से शुरुआत में यह ट्रीटमेंट कोरोना के कुछ ही मरीजों पर किया जाएगा, खासकर जिनकी हाल ज्यादा नाजुक होगी।

जहां वैक्सीन लगने पर शरीर का रोग प्रतिरोधी तंत्र एंटीबॉडीज रिलीज करता है ताकि संक्रमण होने पर ये उस खास किस्म के बैक्टीरिया या वायरस को निष्क्रिय कर दें। ऐसा ताउम्र होता है। लेकिन, इस थैरेपी में जो एंटीबॉडीज दिए जाने पर शोध हो रहा है वह स्थायी तौर पर ताउम्र नहीं रहेंगी।

दरअसल, प्लाज्मा थेरेपी कितनी कारगर होगी इस बारे में अभी कुछ नही कहा जा सकता क्योंकि बैक्टीरिया से संक्रमण होने पर इंसान के पास एंटीबायोटिक्स रहती हैं लेकिन, किसी नए वायरस का संक्रमण या महामारी फैलने पर एंटीवायरल फौरन उपलब्ध नहीं होता। 2009-2010 में एच1एन1 इंफ्लुएंजा की महामारी के वक्त भी कोंवालेसेंट प्लाज्मा थैरेपी का इस्तेमाल किया गया था। इसके काफी बेहतर नतीजे मिले थे। संक्रमण को रोका गया था और मौत के मामलों में कमी आई थी। यही थैरेपी 2018 में इबोला महामारी के वक्त भी मददगार साबित हुई थी।

हालांकि, यह थैरेपी आसान नहीं है। कोरोना से ठीक हुए व्यक्ति के ब्लड से तय मात्रा में प्लाज्मा निकालकर बढ़ते संक्रमित लोगों के मुकाबले इकट्‌ठा करना चुनौती है। कोरोना से संक्रमित ऐसे मरीजों की संख्या ज्यादा है जो बुजुर्ग हैं या उम्रदराज हैं और पहले ही किसी बीमारी जैसे हाईबीपी और डायबिटीज से जूझ रहे हैं। ये सभी ब्लड डोनेशन से रिकवर नहीं हो सकते। इसकी सबसे बड़ी चुनौती है सही वक्त पर सही डोनर का चयन करना जिसके शरीर से कम-से-कम इतनी मात्रा में एंटीबॉडीज लिया जा सके जो कोविड के मरीज को ठीक करने में सच में मददगार हो। उसके साथ ही  इस बात का भी खासा ख्याल रखा जाए किस तरह के माहौल में यह प्रक्रिया अंजाम दी जा रही है वहां का आस-पास का माहौल कितना साफ-सुथरा है। ये बात भी सच है कि डोनर का ब्लड जब मरीज के चढ़ाया जाए तो उसे ठंड लगना, बुखार आना, फेफड़ों में इंफेक्शन होने जैसे गंभीर लक्षणों का सामना करना पड़ सकता है। इसके साथ ही एचआईवी, सिफलिस, हैपिटाइटिस बी और सी के संक्रमण का भी डर बना रहता है। ये सभी संक्रमण ब्लड के जरिए एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के शरीर में पहुंचते हैं।

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कोरोना दुनिया के लिए बिल्कुल नया वायरस है इसलिए कई देश बेहाल होकर कुछ-कुछ शोध कर रहे हैं जो कि काफी हड़बड़ी में हो रहे है। हालांकि, यह बात तो एकदम साफ है कि कोरोना की कोई भी वैक्सीन आने तक इस थेरेपी को बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन, इसके संभावित खतरों को देखते हुए हमें प्लाज्मा थेरेपी पर बहुत सोच समझकर ही आगे बढ़ना होगा।

 

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